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आलोचना

प्रतिबंधित सच का आर्थिक रोज़नामचा

संतोष भदौरिया


भारतीय राजनीतिक परिवेश में उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध्द एवं बीसवीं शताब्दी के आरंभिक चार दशक विश्वव्यापी उथल-पुथल के थे। यही वह दौर था जब अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर घटी घटनाओं का व्यापक प्रभाव विश्व-राजनीति पर पड़ा। जर्मनी, फ्रांस, इटली तथा यूरोप के अनेक देशों में मज़दूरों ने अपनी एकता क़ायम की तथा उनकी संग्राम-शक्ति में वृध्दि हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक शाखा ने इंग्लैंड में काम करना आरंभ किया। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने यूरोप एवं अमेरिका के मज़दूर वर्गों ने समाजवादी आन्दोलनकारियों से सम्पर्क स्थापित किया। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का यह दौर ऐतिहासिक रूप से काफ़ी महत्वपूर्ण है। सन् 1896ई. में यूरोप की साम्राज्यवादी शक्ति इटली का अफ्रीकी देश अबीसीनिया से संघर्ष हुआ। इटली पराजित हुआ। सन् 1899-1902 के बोयर युध्द में इंग्लैंड को भयंकर संकटों का सामना करना पड़ा। विश्व का एक शक्तिशाली देश रूस एशियाई देश जापान से पराजित हुआ। रूस के मजदूरों और किसानों ने ज़ार के विरुध्द क्रांति का झंडा बुलंद किया। चीन में अमेरिकी सामान का बहिष्कार हुआ। वह भी क्रांतिकारी आन्दोलन का एक हिस्सा था।1

किसी भी आर्थिक आन्दोलन की सफलता पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर करती है। सत्तरहवीं, अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्र के रूप में समन्वित होने के लिए तत्कालीन व्यवस्था के विरुध्द संघर्ष हेतु और आधुनिक राज्य, समाज एवं संस्कृति की स्थापना के लिए यूरोप ने पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लिया। फ्रांस की राज्यक्रांति को दार्शनिक आधार प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य पत्र-पत्रिकाओं द्वारा ही संभव हुआ। पत्र-पत्रिकाएँ ही थीं जिनके माध्यम से भारतीय प्रबुध्द वर्ग ने जनता में अपने सामाजिक विचारों का प्रचार करके उनमें आर्थिक उत्पीड़न के विरुध्द भावनाएँ उत्पन्न कीं।

भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवादी शासन का मुख्य उद्देश्य था आर्थिक शोषण करना। यह तथ्य है कि उस समय बिना राजनीतिक पराधीनता के किसी भी देश का आर्थिक शोषण नहीं किया जा सकता था। आर्थिक दोहन की अनिवार्य शर्त है राजनीतिक प्रभुत्व कायम करना। प्रसिध्द अमरीकी विद्वान जैक वाडिस ने उपनिवेशवाद की व्याख्या करते हुए लिखा है - 'उपनिवेशवाद का राजनीतिक सारतत्व है - राजसत्ता के आधार पर एक देश द्वारा दूसरे देश को प्रत्यक्ष रूप से पूरी तरह अधीन रखना। इसमें राजसत्ता प्रभुत्वशाली विदेशी शक्ति के हाथ में होती है।2 एशिया एवं तीसरी दुनिया के अन्य देशों पर पश्चिमी देशों ने पिछली शताब्दी में जो राजनीतिक पराधीनता कायम की, उसके उद्देश्यों को रेखांकित करते हुए जैक वाडिस ने लिखा - 'इस प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभुत्व के दो उद्देश्य थे : उपनिवेशों की जनता को राजनीतिक दृष्टि से गुलाम बनाकर रखना तथा जनता एवं उस देश के संसाधनों का यथासंभव शोषण करना।3 भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवादी सरकार ने जो भी कानून पारित किए, उनमें यह बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के पीछे मुख्य उद्देश्य आर्थिक हितों से प्रेरित थे। उपनिवेश में रहनेवाली जनता के सीधे शासन की आवश्यकता सिर्फ़ इसलिए नहीं थी कि इसके कारण उपनिवेश की जनता का शोषण आसानी से किया जा सकता था, बल्कि संभावित प्रतियोगिता के लिए भी शासन की आवश्यकता थी। साम्राज्यवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए लेनिन ने लिखा है कि साम्राज्यवादी शक्तियों ने उपनिवेशवाद को इसलिए वरीयता दी क्योंकि यही एकमात्र ज़रिया था जिसमें एकाधिकारियों को प्रतियोगियों के साथ संघर्ष के ख़तरे में सफलता की पूरी गारंटी मिलती थी। चूँकि उपनिवेशों के बाज़ार में एकाधिकारी तरीक़े से प्रतियोगिता को समाप्त करना सरल होता है, आदेश (ख़रीद के) सुनिश्चित होते हैं, आवश्यक सम्बन्धों को सुदृढ़ किया जा सकता है, आदि।4 उपनिवेशवाद के माध्यम से अंग्रेज़ों ने भारत की जनता को तरह-तरह से लूटा। अपनी ताकत के बल पर उन्होंने उपनिवेशों से सस्ती ज़मीनें, सस्ता श्रम और सस्ते संसाधन उपलब्ध किए। जिन कच्ची सामग्रियों का निर्यात किया जाता था, किसानों को उनकी क़ीमत जबरन दी जाती थी। जिस तैयार माल का साम्राज्यवादी देश से आयात किया जाता था, उनमें से अधिकांश चीज़ें उपनिवेश से लिये गए कच्चे माल से बनी होती थीं। इनके लिए उपनिवेशों में उनको एकाधिकारी नियंत्रित बाज़ार उपलब्ध होता था।5

भारतीय जनता अंग्रेजी शासन के अंतर्गत अपना श्रम तथा उत्पादन कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर थी, साथ ही इंग्लैंड में बने सामान को अधिक कीमत पर खरीदने के लिए अभिशप्त थी। अर्थशास्त्र की शब्दावली में भारतीयों पर विनिमय की प्रतिकूल शर्तें थोपी गईं।6 अंग्रेजों की विध्वंसकारी नीति के कारण भारतीय उद्योग-धंधे और कृषि-व्यवस्था दोनों ही चौपट हो गए तथा भारतीय अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई, जिससे भारतीय जनता की शिक्षा, संस्कृति तथा मानव-गतिविधियों के अन्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए। भारतीय उद्योग एवं कृषि के आर्थिक शोषण का आभास स्वतंत्रता के शुरुआती दौर से ही भारतीय बुध्दिजीवियों को था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन एवं उनमें पारित किए गए प्रस्तावों में इस आर्थिक शोषण को रेखांकित किया गया है, किंतु बीसवीं शताब्दी में आकर इस आर्थिक शोषण के कुपरिणाम यथार्थ रूप से भारतीय जनता के सामने आए। दादाभाई नौरोज़ी ने इस क्षेत्र में आगे आकर अपना योगदान दिया। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में कविता-कहानी के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भारत की आर्थिक समस्याओं पर बहस तथा विचार-विमर्श आरंभ हुआ।

भारत में हिन्दी की प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं में आर्थिक समस्याओं को लेकर अनेक लेख, कविताएँ एवं सम्पादकीय प्रकाशित हुए जो इस बात के प्रमाण हैं कि बिना आर्थिक संघर्ष के राजनीतिक संघर्ष को पूर्णता नहीं प्राप्त हो सकती। स्वाधीनता आन्दोलन के समय प्रकाशित होनेवाली पत्र-पत्रिकाओं सैनिक, चाँद, स्वदेश, वर्तमान, विप्लव, क्रांति, अभ्युदय की फ़ाइलें इस बात की गवाह हैं। अर्थशास्त्र के नियमों और भारत की आर्थिक समस्याओं को स्पष्टता के साथ भारतीय जनता के सामने रखने तथा उनका विश्लेषण करनेवाले जो लेख और टिप्पणियाँ समय-समय पर प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, वे उल्लेखनीय हैं।

'स्वदेशी आन्दोलन' भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की उल्लेखनीय घटना है। हिन्दी की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं ने इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रतिबंधित पत्र 'चाँद' ने अपनी 'स्वदेशी आन्दोलन' शीर्षक विज्ञप्ति में विभिन्न आँकड़े प्रस्तुत करते हुए लिखा - भारतवर्ष में अंग्रेज़ी सत्ता के विस्तार की प्रत्येक घटना इस बात की साक्षी है कि भारतवर्ष का शासन इंग्लैंड के आर्थिक लाभ की दृष्टि से किया जाता है। अब विदेशी वस्त्र पहनने वाले हमारे भाई और बहिनें हृदय पर हाथ रखकर अपने अंत:करण से पूछकर देखें कि अपने तैंतीस करोड़ भाईयों को नरक की यंत्रणा देकर, भारत के पड़ोसी राष्ट्रों की स्वतंत्रता को खतरे में डालकर, शासक जाति के आत्मिक पतन का साधन उपस्थित कर और स्वयं अपनी ही संतति को मृत्यु के मुख में फेंककर भी विदेशी वस्त्र चाहते हैं या नहीं?7 प्रतिबंधित पत्र 'वालंटियर' में प्रकाशित गंगानारायण अवस्थी की 'चरखा माहात्म्य' शीर्षक कविता भी उल्लेखनीय है_

कै मारू बाजन की , शब्द प्रतिध्वनि होवे।
    सूरा को उत्साह क्रूर कायर दल रोवें।8

हिन्दी पत्रिका 'अलंकार' का दृष्टिकोण पूर्णतया समाजवादी था। पूँजीवादी व्यवस्था के विरोध में अनेक रचनाएँ इसमें अक्सर स्थान पाती रहीं। 'पूँजीपतियों के प्रति' की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - गुलाम भारत के पूँजीपतियो! तुम अपनी पूँजी कैसे-कैसे व्यापारों में लगा रहे हो? संसार के वर्तमान विचारों की प्रबल वायुधाराओं में तरंगित हुआ मेरा हृदय व्याकुलता से पूछता है कि तुम अपनी पूँजी किधर लगा रहे हो? तुम्हारे सब नामधारी व्यापार देश को अधिक-अधिक गुलाम बनाने में ख़त्म हो रहे हैं। इस समय तो एक ही व्यापार है जिसमें तुम्हें, हमें, सबको, अपनी सब पूँजी लगानी चाहिए, यह है स्वाधीनता को उत्पन्न करने का व्यापार।9 मज़दूर वर्ग पूँजीवादी व्यवस्था की उपज है। पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर की दयनीय स्थिति का चित्रण 'विप्लव' में प्रकाशित प्रभाकर माचवे की कविता 'शनीचर' की निम्नलिखित पंक्तियाँ करती हैं_

एक मजदूरों की गंदी सी ' चाल '
    वहाँ रोशनी भी बड़ी मुश्किल से जा सकती
    हवा को तो है देशनिकाला-सा मिला
    और बहती है सडाँध बदबू-भरी नाली
    रहते हैं वहाँ कई कुटुम्ब एक साथ 10

'स्वदेश' के विजयांक में प्रकाशित लेख 'मजदूर दल और भारतवर्ष'11 में इंग्लैंड में मजदूर-दल के सत्ता में काबिज़ होने पर खुशी ज़ाहिर की गई है। भारत की स्थिति का बयान किया गया है तथा इंग्लैंड के साम्राज्यवादी स्वरूप का खुलासा किया गया है। इस लेख के लेखक कृष्णदेव प्रसाद गौड़ हैं। 'स्वदेश' के इसी अंक में 'लाल क्रांति के पंजे में' शीर्षक एकांकी प्रकाशित हुआ है, जिसके रचयिता पत्र के सम्पादक पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' हैं। रूस में ज़ारशाही शासन के सत्ताच्युत होने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है। पूरा एकांकी आठ दृश्यों में विभाजित है। एकांकी का अंतिम वाक्य उल्लेखनीय है - कैसा शुभ संवाद है! अत्याचारी को उसके कुकर्मों का फल मिल गया। रावण का नाश हो गया। पूँजीवाद का समर्थक कुत्तों की मौत मार डाला गया। आज हमारा प्यारा रूस पवित्र हो गया। आज प्यारी मातृभूमि के मुख पर मुस्कुराहट दिखाई पड़ रही है। माँ, इतने से ही संतोष कर लो। ज़ार के ही खून से संसार के अंधों की आँखें खुल जाएँ और गरीबों को उनकी झोपड़ियाँ लौटा दें।12 पूँजीवाद के अंधकार में साम्यवाद का दिव्य प्रकाश13 पंडित विश्वम्भरनाथ जिज्जा का महत्वपूर्ण लेख है जो कि 'स्वदेश' के विजयांक में प्रकाशित हुआ है। इस लेख में पूँजीवाद की विषमताओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है तथा साम्यवाद की वकालत की गई है।

पूँजीवाद और फ़ासीवाद आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। 'नया हिन्दुस्तान' नामक हिन्दी पत्र में 'फ़ासिज्म का जनाज़ा बँध गया' शीर्षक से सम्पादकीय प्रकाशित हुआ है, जिसकी निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - पूँजीवाद और फ़ासीवाद के विघटन से, उनकी जली हुई राख से एशिया और यूरोप में एक नया समाज, एक नया संसार उदय होगा। मज़दूरों का संसार, किसानों का संसार, दुनिया के शांतिप्रिय और तरक्क़ीपसंद मेहनतकशों का संसार जिसमें न शोषण होगा, न अन्याय, न युध्द का नरसंहार।14 'नया हिन्दुस्तान' के इसी अंक में 'विदेशी माल बायकाट'15 शीर्षक के अंतर्गत कलकत्ता कांग्रेस (1928) का प्रस्ताव छापा गया है जिसमें कांग्रेस निश्चित करती है कि कांग्रेस को आम तौर पर सब विदेशी कपड़े और ख़ास तौर से ब्रिटिश माल के बहिष्कार के लिए आन्दोलन करना चाहिए।

हिन्दी की प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं ने किसान-आन्दोलन से सम्बन्धित लेखों एवं कविताओं को प्रमुखता से छापा है। अंग्रेज़ी शासन ने भारतीय किसान की कमर तोड़कर रख दी। असहाय किसान पर चौतरफ़ा आर्थिक हमला किया गया। हिन्दी के साप्ताहिक पत्र 'अभ्युदय' ने, जो कि इलाहाबाद से प्रकाशित होता था, 18 नवम्बर 1937 को अपना किसान अंक प्रकाशित किया, उसमें किसानों से सम्बन्धित अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं। उसकी विस्फोटक सामग्री के कारण प्रांतीय सरकार ने 'अभ्युदय' के इस अंक को ज़ब्त कर लिया।16 'वालंटियर' पत्र में टोडरसिंह तोमर ने 'कानूनी चकमा' शीर्षक लेख के अंतर्गत किसानों को एकजुट होने का आह्वान किया है- किसानों का भला तभी हो सकता है जब एक किसान दूसरे की पूरी और सच्ची हमदर्दी करे, बातों की नहीं किन्तु अमल की। इसलिए जब तक किसान उनकी मदद (पैसे की नहीं, बल्कि संगठन की) न करेंगे, अत्याचारों से छुटकारा कठिन है। भाई किसानो! सोचो और शर्माओ।17

हिन्दी की प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं ने उन्हीं लेखों एवं अन्य रचनाओं को अपनी विषयवस्तु के रूप में चुना, जिनका सीधा सम्बन्ध उपनिवेशकालीन भारत की आर्थिक समस्याओं से था। उपनिवेशकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति को सामने रखने वाले दो पक्षों - कृषि एवं उद्योग पर अनेक लेख लिखे गए। इस तरह के सभी लेख सम्पादकीय सूझ-बूझ और परिस्थितियों के प्रति सजगता के परिचायक हैं। इन लेखों को भारतीय जनता के लिए आम बोलचाल की भाषा में प्रकाशित किया गया है। भारतीय कृषकों की आर्थिक दशा और कृषि-सुधार पर अनेक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए। तत्कालीन हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन से हम भारत की आर्थिक स्थितियों को समझ सकते हैं।

साम्राज्यवाद के विनाशकारी और शोषण से पूर्ण स्वरूप को सामने लाने के लिए हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने भारतीय कपड़ा-उद्योग का ऐतिहासिक विवेचन किया है। यह आज भी स्वीकार किया जाता है कि अंग्रेजी शासन शुरू होने से पहले भारत का गृह-उद्योग तथा हस्तशिल्प उन्नत अवस्था में था। विश्व की प्रमुख मंडियों तक भारतीय माल की पहुँच थी। यूरोप के बाजारों में ढाका में बनी सिल्क तथा मलमल की बड़ी माँग थी। मगर उपनिवेशवादी शासन ने धीरे-धीरे भारत के उद्योग-धंधों के वर्चस्व की स्थिति को समाप्त कर दिया। यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं ने अपने स्तर पर भारतीय मानस को उस ओर ले जाने की कोशिश की, जिससे देशवासी अपनी प्राचीन समृध्दि को समझें और मूल्यांकन कर सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी की प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं ने अपनी रचनाओं के जरिए तत्कालीन आर्थिक दुर्दशा के लिए अंग्रेज़ी राज को ज़िम्मेदार ठहराया। ये पत्र-पत्रिकाएँ जहाँ एक ओर भारतीय उद्योगों के विनाश की कथा कहती हैं, वहीं दूसरी ओर उससे निजात पाने के तरीके भी सामने लाती है; इससे वे स्वदेशी आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

वस्तुत: उपनिवेशवादी अंग्रेज़ शासकों की यह सुनिश्चित नीति थी कि उपनिवेश कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता बने रहें जिससे उनका वाणिज्य तथा उद्योग चलता रहे। वे अपना कच्चा माल कम कीमत पर बेचते रहें और तैयार माल अधिक कीमत पर उपनिवेशों में खपाते रहें।18 उपनिवेशों में शोषण के जितने भी तरीक़े थे उनमें प्रमुख तरीक़ा यही था। इन तरीक़ों का पत्र-पत्रिकाओं ने भारतीय जनता के सामने खुलासा किया। साथ ही यह भी प्रचारित किया गया कि भारतीय घरेलू उद्योगों को बंद कराकर साम्राज्यवादियों ने उनके बाज़ारों पर कब्ज़ा कर लिया है।

हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने भारतीय पूँजीपतियों को भी आड़े हाथ लिया। उनको सुझाव दिया कि यदि वे नए यंत्र लगाते हैं तो इसका लाभ भारतीयों को मिलेगा, विदेशों में नहीं जाएगा। अत्याधुनिक मशीनों को लगाने का सुझाव दिया गया जिससे विश्व-बाजार में स्पर्धा के पीछे न रह जाएँ। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है - यह पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को अच्छी तरह मालूम था, इसलिए उन्होंने उद्योगों के साथ ही कृषि से सम्बन्धित समस्याओं पर पर्याप्त ध्यान दिया। गाँव के किसानों की खराब आर्थिक स्थिति के लिए अंग्रेज़ी शासन को दोषी ठहराया गया। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि भारतीय कृषकों की वर्तमान अवनति ब्रिटिश नीति का परिणाम है। अतीत की ओर बार-बार लौटकर एवं उनकी महान उपलब्धियों से प्रेरणा ग्रहण कर आर्थिक समस्याओं के निदान खोजने की कोशिश की गई। यह बात पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही भारतीयों ने समझी कि हम अंग्रेजों के वाणिज्यिक साम्राज्य के परिशिष्ट-मात्र बनकर रह गए हैं।

प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं के उपर्युक्त विवेचन से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बदहाली को भारतीय जनता के सामने पत्र-पत्रिकाओं ने सफलतापूर्वक रखा और साम्राज्यवादी, पूँजीवादी, उपनिवेशवादी एवं फ़ासीवादी शक्तियों को पहचानने में मदद की। साथ ही उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन को आगे बढ़ाया तथा किसानों को समाधान की ओर अग्रसर किया। उद्योग-धंधों एवं हस्तशिल्प को भी पत्रिकाओं ने प्रोत्साहित किया। पत्र-पत्रिकाओं ने भारत की प्रत्येक आर्थिक समस्या के प्रति सतर्कता दिखलाई और उन पर होनेवाली प्रतिक्रियाओं के हर पहलू से हिन्दी-भाषी जनता को अवगत कराया। अपनी आर्थिक समस्याओं से पूरी तरह परिचित होने के बाद भारतीय जनता में निरंकुश शासन के प्रति विद्रोह का भाव ध्वनित हुआ।

सन्दर्भ

1. ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद- द हिस्ट्री ऑफ इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल,

2. जैक वाडिस- इण्ट्रोडक्शन टु नियो-कोलोनियलिज्म,

3. वही,

4. वी.आई.लेनिन- इंपीरियलिज्म: दि हाईएस्ट स्टेज ऑफ कैप्टिलिज्म, लंदन 1984,

5. जैक वाडिस- इण्ट्रोडक्शन टु नियो-कोलोनियलिज्म,

6. वही,

7. चाँद, जून, 1929,

8. वालंटियर, दिसम्बर, 1924 

9. अलंकार, दिसम्बर, 1934, पृ.21

10. विप्लव, अप्रैल, 1939, पृ.40

11. स्वदेश, विजयांक, 7 अक्टूबर 1924, पृ.22

12. वही, अक्टूबर, 1924 पृ. 32

13. वही, पृ. 34

14. नया हिन्दुस्तान, 17 सितम्बर 1939, पृ.3

15 गवर्नमेंट नोटिफिकेशन नं. 33918, दिसम्बर 1931, भा.रा. अभिलेखागार, दिल्ली

17. वालंटियर, दिसम्बर 1924, 

18. जैक वाडिस- इण्ट्रोडक्शन टु नियो-कोलोनियलिज्म,

 


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